किसको कहाँ बताने जाएँ
हम अपनी काली करतूतें।
अपने धैर्य, भीरुता अपनी,
अपने छल-बलकैसे कूतें?
मचा रखा है क्यों विनाश का
महानृत्य परनों तोड़ों से,
कौन बचा रह सका आज तक
कालदेवता के कोड़ांे से,
अंतस को फूँका कपास-सा
अब क्या कातें, भाँजें सूतें?
सिक्ख, इसाई, हिंदू-मुस्लिम होना
क्यों हो गया लाजिमी?
कैसी नई ज़रूरत है ये?
गैरज़रूरी हुआ आदमी।
छुआछूत मिट सकी न जी से
गहरा गईं और नव छूतें।
निगमागमसम्मत दर्शन का
हम पर कोई प्रभाव नहीं है,
गगन, गुफा या पातालों में
छुपना कोई बचाव नहीं है।
भ्रष्ट तपस्वी-से घूरों पर,
खड़े हुए हम लगा भभूतें।