किसने जीवन दीप जुगाया !
मेरे मस्तक पर थी किसके स्नेहांचल की छाया !
जब भी महाकाल ने अपने जबड़ों को फैलाया
किसका था वह हाथ सदा जो आड़े-आड़े आया !
अपना ही प्रतिबिम्ब, मोह, भ्रम, स्वप्न कहूँ या माया
मैंने प्रतिपल निज प्राणों पर परस किसी का पाया
कौन अनल-सागर से तृण की तरी पार कर लाया !
किसके बल झंझा से लड़ती रही ज्योति कृशकाया !
किसने जीवन दीप जुगाया !
मेरे मस्तक पर थी किसके स्नेहांचल की छाया !