किसान
चाहता स्नेह और
सम्मान।
अन्नदाता
सब के लिये
अन्न उपजाता
अक्सर
खुद भूखा रह जाता
घर मे
अभाव का साम्राज्य
पीठ पर
अनचुके कर्ज का
दुर्वह बोझ
जीवन कठिन
दिन दिन होता दूभर
चुनाव में
बनता वोट बैंक
सुनता वादे
कभी न पूरे होने वाले इरादे
जवान होती बेटी
नौकरी को तरसते बेटे
मुट्ठी भर अन्न
खाने वाले कई मुँह
बेबसी जीते जी मारती
पीर सही नहीं जाती
होता निराश
करता आत्मघात।
कोई नहीं समझता
उसकी विवशता को
असहनीय दर्द को
सिवाय विधाता के॥