धन्य तुम ग्रामीण किसान
सरलता-प्रिय औदार्य-निधान
छोड़ जन संकुल नगर-निवास
किया क्यों विजन ग्राम में गेह
नहीं प्रासादों की कुछ चाह
कुटीरों से क्यों इतना नेह
विलासों की मंजुल मुसकान
मोहती क्यों न तुम्हारे प्राण!
तीर सम चलती चपल समीर
अग्रहायण की आधी रात
खोलकर यह अपना खलिहान
खड़े हो क्यों तुम कम्पित गात
उच्च स्वर से गा गाकर गान
किसे तुम करते हो आह्वान
सहन कर कष्ट अनेक प्रकार
किया करते हो काल-क्षेप
धूल से भरे कभी हैं केश
कभी अंगों में पंक प्रलेप
प्राप्त करने को क्या वरदान
तपस्या का यह कठिन विधान
स्वीय श्रम-सुधा-सलिल से सींच
खेत में उपजाते जो नाज
युगल कर से उसको हे बंधु
लुटा देते हो तुम निर्व्याज
विश्व का करते हो कल्याण
त्याग का रख आदर्श महान
लिए फल-फूलों का उपहार
खड़ा यह जो छोटा सा बाग
न केवल वह दु्रमवेलि समूह
तुम्हारा मूर्तिमन्त अनुराग
हृदय का यह आदान-प्रदान
कहाँ सीखा तुमने मतिमान
देखते कभी-शस्य-शृंगार
कभी सुनते खग-कुल-कलगीर
कुसुम कोई कुम्हलाया देख
बहा देते नयनों से नीर
प्रकृति की अहो कृती सन्तान
तुम्हारा है न कहीं उपमान!
राज महलों का वह ऐश्वर्य
राजमुकुटों का रत्न प्रकाश
इन्हीं खेतों की अल्प विभूति
इन्हीं के हल का मृदु हास
स्वयं सह तिरस्करण अपमान
अन्य को करते गौरवदान
विश्व वैभव के स्रोत महान
तुम्हारा है न कहीं उपमान!
-विशाल भारत, 1925
-माधुरी, अप्रेल, 1928