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किसी-किसी दिन / सुनीता जैन

किसी-किसी दिन सृष्टि
अपने बाजू पसार कर
भेंट लेती है पूरा

कैसा नरम सुवासित वह
आलिंगन होता है धरा के
वक्ष का,

कैसा निर्दोष घास का
पन्नग बिछौना,
चहूँ खूँट वृक्षों पे
नीली मसहरी तना,

कैसी बधाई गाती हैं
वनदेवी सभी
कैसी-कैसी नदी में
नहा आता है मन छौना!