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किसी की मुलाकात / राजकिशोर सिंह

होती थी दिवाली
बचपन में
गाँव में
माँ के आँचल की छाँव में
जब छोड़ता था पटाऽे बड़ी उमंगों में
दादी के सिरहाने के नीचे
होती थी ध्माके की आवाज
पिफर छिप जाता डर जाता
दादाजी के पीछे
पिफर छोड़ता पफुलझड़ी दादाजी के साथ
लगने लगता डर
पिफर पकड़ लेता उनका हाथ
पकड़कर हाथ
साहस दिऽाते ले जाते
वहाँ जहाँ होता
गाँवों के दीपों का वंदनवार
जहाँ होता
दीपों का द्वार
पहले
कितना जगमगाता था मेरा गाँव
कितना लगता था सुहाना
अब कहाँ वो हुक्का-पाती
कहाँ ग्रामीण नाटक का जमाना
अब न निकलती लक्ष्मी पूजा की झलक
जिसे देऽते बनता गिरती न पलक


प्रसाद लक्ष्मी पूजा का
दस लोगों में बँटता था
पाकर सबका मन भरता था
अब बदल गया जमाना
बदल गयी दीवाली
बदल गयी सब रीति
नाम रह गया और सब ऽाली
लोग पूरे साल कहीं रहें
लेकिन दीवाली के दिन
एक साथ पहले रहते थे
दूर दराज में काम करते थे
लेकिन दीवाली की रात
साथ ऽाते थे
अब दिवाली के दो दिन पहले
बड़ा बेटा पार्टी में
जाने की बात सोचता है
छोटा टूर में जाने की बात
दीवाली की रात सोचता है
पत्नी उस दिन जुए में
जाने की जुगत सोचती है
जीत के लिए
पत्ते से पत्ते की मात सोचती है
मैं घर में अकेले
पिछले दिनों के हालात सोचता हूँ
निगाहें दरवाजे पर हैं
किसी की मुलाकात सोचता हूँ।