किसे दोष दूँ मैं
तुझे
या अपने आप को
या अपने पागल मन को
मेरा जीवन न मेरे पीछे है
न ही मेरे आगे
वर्तमान की तरह मेरे साथ है
मेरे अपने भी शायद
ऊब चुके हैं हम से
मेरे बीते बरसों का
वह अटूट सपना
प्रेत आत्मा की तरह,
मुझे कुरेदता रहता है,
जाने किस पाषाण दिशा में छुप गया है
मेरा सपना सच हो न सका
न ही मिली मुझको मंजिल अपनी
मैं दोषी की भाँति अपमानित सी।
उमस की तरह
दिल में वहशत पड़ी पीड़ा लिये
अपने में घुटती रह जाती
सब से अकेली और अनभिज्ञ मैं
अपनी फूटी किस्मत को
कोसकर क्या करूँ मैं,
मेरी हर शाम मेरी हर रात
चिन्ता में घुली हुई है।
शायद यही है मेरी सजा
फिर किसी को दोष देकर क्या करूँ मैं।