Last modified on 26 जून 2013, at 15:16

किस्सा / महेश वर्मा

चलते चलते हम कहानी में उस जगह पहुँच गए हैं
जहाँ चाकू किसी भी चीज़ को काट नहीं पाते
और कूट संकेत बताने वाली चिड़िया की आवाज़
सूख गई है अनाम वृक्ष की टहनी पर।
नदियाँ इतनी शांत
कि धूप में काँच की तश्तरी पर सजाई-सी दिख रही हैं
उदास आँखों वाली मछलियाँ
तहखानों में भर रही है रेत और
पत्थर की मूर्तियाँ उनमें नाक तक डूब चुकी हैं
मंत्रोंवाली किताब की सतरें भुरभुरा कर झरीं
और हवा उन्हें बहा ले गई है प्राचीन वर्णमालाओं के देश में
उबासियाँ लेते नहीं थकते अभिमंत्रित थे जो लोग
वे रुकते हैं तो बस तारीख और समय पूछते हैं,
दूर सुनाई दे रही है भापवाले ट्रेन की सीटी जो उन्हें ले जाएगी।

राजकुमारियाँ झुर्रियों से बेपरवाह
और उनके बाप शतरंज में मशगूल।
सपनों में खजूर खाते हरकारे नींद में मुँह चला रहे हैं,

बुद्धिमान लोग कोई उलझाव गढ़ते हैं,
तो बच्चे उन्हें जूतों के तस्मों की तरह खोल लेते हैं
गोया यह खेल भी ख़त्म पर।

हम अँधेरे में दीवार टटोल रहे हैं कि कोई खटका हाथ लगे,
कि दरवाज़ा दिखाई दे बाहर जाने का।