तन- मन में आग लगल हे, तब की गाऊँ हम।
जग रहल जलन जे कइसे भला सुताऊँ हम।।
हर तरफ निरासा के, करकी बदरी घिरलय,
गहराले जा हइ सगंरो, रोजे अन्हियारा।।
ऊ नयकी भोर के आसा में थक गेलय साँस।
जे लूटा सकय जन-मन में पुरगर उजियारा।।
छंट जइतय घिरल अन्हियारा एहे उमेदे पर।
कहिया तक टूटल मन के धीर बँधाऊँ हम।।
जन्ने भी देख•, लखा हे मेला अभाव के।
बस भूख-पियास के होवइत रहल जमाव हियाँ।
रद्दी के भाव ईमान खूब बेचल जाहे।
अनरीत-अनैतिकता के पडल पड़ाव हियाँ।
अब आम अदमी तो मर-मर के जी रहलय।
चाहना हमर, इन्हकर त• लोर पी जाऊँ हम।।
जे आँच-लपट में अखनी झुलस रहल धरती।
ओहे से कोय अइसन चिनगारी भी फुटतय।।
ओकरे ज्वाला में जर-जर भसम बदी होतय।
कुंठा-संतरास घुटन के घेरा भी टुटतइ।।
अप्पन माटी पर होय निछावर तन-मन-धन।
ई वसुधा के धूरी से तिलक लगाऊँ हम।।