हर साल 23 अप्रैल को आरा में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के महायोद्धा कुँवर सिंह का विजयोत्सव मनाया जाता है। दानापुर के विद्रोही सिपाहियों ने कुँवर सिंह के नेतृत्व में आरा को आज़ाद कराया था। 7 दिन तक यहाँ आज़ाद सरकार रही। फिर लड़ाई आगे बढ़ी। दो-दो अँग्रेज़ लेफ्टिनेण्टों को जान गँवानी पड़ी। एक युद्ध छोड़ कर भाग गया। कुँवर सिंह को अंग्रेज़ों ने जगदीशपुर से बेदखल कर दिया, तब भी उन्होंने हार नहीं मानी। कानपुर, रीवा और आजमगढ़ में कम्पनी की सेना से ज़बरदस्त लड़ाई लड़ते हुए, विजय हासिल करते हुए उन्होंने वापस जगदीशपुर पर अधिकार किया और उसके तीन दिन बाद ही उनकी मृत्यु हो गई। अँग्रेज़ों की गोली जब उनके बाँह में लगी तो उन्होंने तलवार से हाथ के उस हिस्से को काट दिया, इसकी चर्चा खूब होती है। 1857 को लेकर विद्वानों में बड़ी बहसें होती हैं। लेकिन जो लोग आज भी साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ भारतीय जनता की एकता, खासकर हिन्दू-मुस्लिम एकता के हिमायती हैं, जो गाँव-नगर फैल रहे कम्पनियों के जाल से देश को आज़ाद कराने की लड़ाई लड़ते रहे हैं, जो कम्पनियों का हित साधने वाली पार्लियामेण्ट के ख़िलाफ़ देश को जगाने के लिए संघर्ष चला रहे हैं, वे कुँवर सिंह के संघर्ष को किस तरह देखते हैं, इसे रमता जी की इस मशहूर रचना के जरिए समझा जा सकता है। सामन्ती-साम्प्रदायिक ताकतों द्वारा कुँवर सिंह को अपना नायक बनाने की साजिशों का प्रतिवाद भी है यह गीत। आइए, कारपोरेटपरस्त-साम्राज्यपरस्त राजनीति के ख़िलाफ़, साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के ख़िलाफ़ जनता की आज की लड़ाइयों के सन्दर्भ में किसानों के फौजी बेटों द्वारा शुरू उस विद्रोह, जो शीघ्र ही जनविद्रोह बन गया, को याद करें। कुँवर सिंह के संघर्ष ने क्रान्तिकारी-वामपन्थी-जनकवि रमता जी को व्यवहार के धरातल पर किन विचारों को सिखाया, आइए, इस पर विचार करें।
झाँझर भारत के नइया खेवनहार कुँवर सिंह
आजादी के सपना के सिरिजनहार कुँवर सिंह
इतिहास के होला साँपे लेखा टेढ़टाढ़ चाल
कभी सूतेला निहाल, कभी उठेला बेहाल
बढ़ल आपस के फूट, देश हो गइल पैमाल
गाँवे-नगरे फएल गइल कम्पनी के जाल
मने-मने करत रहन सब विचार कुँवर सिंह
अपना देश खातिर पोसत रहन प्यार कुँवर सिंह
देखत-देखत ढाका-काशी के उजार हो गइल
लंकाशायर-मैनचेस्टर के सुतार हो गइल
अने-धने भरल-पुरल, से भिखार हो गइल
भूखड़ टापू इंगलैण्ड गुलजार हो गइल
चुपे चुपे होत रहन तइयार कुँवर सिंह
खीसी जरत रहन एंड़ी से कपार कुँवर सिंह
जब अनमोल कलाकार के अँगूठा कटाई
आ, बलाते जब सोहागिनी के जेवर छिनाई
दिने दूपहर सड़क पर जबकि इज्जत लुटाई
अइसन के होइ, करेजा जेकर फाट ना जाई
आँख फार के देखले लूट-मार कुँवर सिंह
कान पात के सुनले हाहाकार कुँवर सिंह
भारत माता के अचक्के में पुकार हो गइल
खीस दबल रहे भीतर से उघार हो गइल
बाढ़ आइल अइसन जोश के, दहार हो गइल
बात बढ़त-बढ़त आखिर में जूझार हो गइल
देशी फउज के बनले सरदार कुँवर सिंह
अपना देश के भइले रखवार कुँवर सिंह
रहे मोछ ना, उ बरछी के नोक रहे रे
तरूआरे अइसन तेगा अइसन चोख रहे रे
कसल सोटा अइसन देह, मन शोख रहे रे
अइसन वीर जनमावल, धनी कोख रहे रे
ओह बुढ़ारी में जवानी के उभार कुँवर सिंह
अलबेला रे बछेड़ा असवार कुँवर सिंह
गइल जिनिगी अनेर, जब निशानी ना रहल
सवंसार के जवान प’ कहानी ना रहल
जिअल-मुअल दूनों एक, जब बदानी ना रहल
छिया-छिया रे जवानी, जबकि पानी ना रहल
हुंहुंकार के सुनवले ललकार कुंवर सिंह
रने वन मचवले धुआंधार कुंवर सिंह
होश बड़े-बड़े वीर के ठेकाने ना रहल
तोप, गोला के, बनूक के कवनो माने ना रहल
केकरो हाथ, गोड़, नाक, केकरो काने ना रहल
लागल एको झापड़, ओकरा तराने ना रहल
छपाछप फेरसु चारो ओर दुधार कुँवर सिंह
नीचे खून के बहवले पवनार कुँवर सिंह
होला ईंट के उत्तर पत्थर से देवे के जबाना
कस के दुशमन से बदला लेवे के जबाना
कभी छिप के, कभी परगट लड़े के जबाना
कभी हटे के, आ, कबहीं बढ़े के जबाना
रहन अइसन फन में खूबे हुंसियार कुँवर सिंह
राते रात करस अस्सी कोश ले पार कुँवर सिंह
अधिकार पा के मुरुख मतवाला हो जाला
रउआ कतनो मनाई, सुर्तवाला हो जाला
देश जागेला त दुनिया में हाला हो जाला
कम्पनी का? परलामेण्ट के देवाला हो जाला
एह विचार के सिखवले बेवहार कुँवर सिंह
जगदीशपुर के माटी के सिंगार कुँवर सिंह
खाँव गेहूँ चाहे रहे एहूं दूनों साँझे पेट
दान मुटठी खोल के होय, चाहे खाली रहे टेंट
बांह देश के उधारे, चाहे गंगाजी के भेंट
मान कायम रहे, जीवन लीला ले समेट
अस्सी बरिस के भोजपुरी चमत्कार कुँवर सिंह
लक्ष्मीबाई-तँतिया-नाना के इयार कुँवर सिंह
रचनाकाल : 23.04.1955