Last modified on 23 अगस्त 2023, at 00:16

कुंवरवर्ती / राकेश कुमार पटेल

पता नहीं कौन रही होगी
वह कुंवारी लड़की
जिसको देवी बनाने के वास्ते
गढ़ दी गई थी एक अनोखी कहानी
ऐसी ही तमाम कहानियों की तरह
जिन्हें धरती के एक सच को
ढेर सारी कपोल कल्पित कथाओं और
लीलाओं के रसायन में घोलकर
उड़ा दिया जाता है आसमान में
अनेक शक्तियों से संपन्न कर,
फिर एक 'जमीनी सच'
'पारलौकिक सत्य' बन जाता है
और तालाब में दफन हुई 'कुँवारी लड़की'
'कुँवरवर्ती देवी' के मिथक में बदल जाती है।

शायद वह लड़की प्रेम से विलग
एक विरहन रही होगी
जो संसार भर की 'इज्जत का बोझ'
अपने कंधों पर उठाए,
मर्यादा की जंजीरों में जकड़ी
थकी हारी बेचारी
अपनी 'शाश्वत परतंत्रता' को बेधने

भोगने को दंड
'प्रेम' जैसे सर्वमान्य अपराध का
कूद गई होगी अथाह जलराशि में
और उसके आँसुओं के सैलाब से
उफनकर निकली होगी एक नदी
लोग भी ऐसा ही कहते हैं।

उसी ताल के किनारे
फेंक सारे मोह पाश
लौटा दिया था बुद्ध ने
सारथी को वापस कपिलवस्तु
और खुद चल दिए थे
शिक्षा-दीक्षा, भिक्षा-परीक्षा के पथ पर
खोजने दुनिया के दुःखों का हल।

कुँवरवर्ती अपना अस्तित्व मिटाकर
नदी बन बह चली थी
मानवता को जीवन देने
जैसे बुद्ध ने त्यागकर सारे सुख
और लोभ-मोह के बंधन
खोजा था इच्छामुक्त जीवनपथ
जो है दुःखों से पार जाने का महामार्ग ।

2
कुँवरवर्ती नदी ही नहीं
एक देवी भी बन गई
जिसको पूजने-मनाने
अपने मंत्रों को जगाने
जाते हैं तांत्रिक
साधने उस देवी को
साल में एक बार

दिलाने को मुक्ति
अतृप्त आत्माओं से
चुड़ैल और भूतों से पीड़ित जनसमुदाय को

जो एकत्रित होकर करता है
प्रतीक्षा लंबी कतारों में
तांत्रिक की झोंपड़ी के सामने ।

हाथों में जलती खप्पर लिये
जब निकलता है तांत्रिक, देवखुर से
पूजकर कुँवरवर्ती देवी को
तो मंत्रासिक्त खप्पर के धुँए के संपर्क से
पीड़ित जनसमूह का हो जाता है विरेचन
दोहराए जाते हैं मंत्र ज़ोर-ज़ोर से निरंतर
ऊपर आकाश में बैठी देवी की खुशामद में
जो आत्महंता से देवी बन चुकी थी।

3
कुँवरवर्ती बहती तो आज भी है
अपनी कृशकाय धार लिये
लेकिन जो सम्मान
बुद्ध ने उसे दिया था
इस नदी के जन्म स्थल पर
उससे वंचित-उपेक्षित होकर
उदासमना प्रवाह के साथ
विलुप्त होती हुई सी
आज भी बहती है कुँवरवर्ती।

4
कुँवरवर्ती की बीच धार में कहीं
बालू खोदते हुए हमने इसे बालपन में
नदी मानने से इनकार कर दिया था
और पूछा था एक प्रश्न
इतनी छोटी नदी होती है कहीं ?
मैं नहीं मानता !
आज भी यह प्रश्न अनुत्तरित
नदी की धार में तैर रहा है कहीं
इन समावेशी लोकतांत्रिक नदियों को
नदी समझता कौन है ?

डाँट पड़ी थी मुझे उस दिन
ऐसा नहीं बोलते
नदी बहुत सामर्थ्यवान होती है
उसका सम्मान करना सीखो'
बीच नदी में खड़े हो

नाराज़ नदियाँ बहा ले जाती हैं
सारा अहंकार अपने साथ

जैसे एक राजा ने कभी 'मिथकों में'
नदी का मजाक उड़ाते हुए
उसे पार करना चाहा था
घोड़े पर सवार होकर
अपमान से क्षुब्ध नदी ने विकराल रूप धर
डुबो दिया था राजा को
उसके अहंकार के साथ

क्षमा-याचना के बाद
जीवनदायिनी ने बचाए थे प्राण
नदी छोटी हो या बड़ी
अपनी त्वरा में बहती है
आत्मविश्वास से भरी निडर
उसका सम्मान ही जीवनमंत्र है।

कृशकाय-मृतप्राय कुँवरवर्ती भी
कभी बहती थी
इठलाते-बलखाते परंतु
जबसे उसके किनारे
बाज़ार लगने लगे और
सभ्य लोग बसने लगे
मुरझाने लगी है ये सदानीरा

जब नदी बरसाती नाले में बदल जाए
तो निरर्थक हो जाता है
कुँवरवर्तियों का बलिदान
फिर पढ़ते रहो मंत्र
करते रहो पूजा
मृत नदियाँ, आत्महंता कुँवरवर्तियाँ
पुनर्जीवित नहीं हुआ करतीं।