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कुचक्री कोरोना की कहानी / अभि सुवेदी / सुमन पोखरेल

लगता है
वही आततायी है यह
जिसके डर से छुपे हुए हैं हम।
हम में से लाखों लोग जिसके भय से
पैदल ही भूखे और अर्धनग्न होकर
कर रहे हैं सैकड़ों मील की पैदल यात्रा।
इतने ज़्यादा लोग कब चले थे इससे पहले!
इतने ज़्यादा लोग कब छुपे थे इससे पहले!

यह निराकार आकार,
जीवंत-निर्जीव कुछ,
जिसके रहने की जगह
चिंता, भय और शोक की तरंगें हैं,
जो ध्वनि से भी अधिक द्रुत किरणों की गति में
पृथ्वी के ऊपर इंसानों पे चढ़कर बेलगाम दौड़ता है।
इसी का उठाया हुआ है ये सब बवंडर।

अनायास विस्तार हुआ
यह एक बेलगाम हलचल,
जो न सूरज न चाँद के प्रकाश में,
न आकाश के नादों पे चलता है।
यह ज्योति और अंधकार का अनूठा द्वंद्व है,
एक अपरिभाषित विद्रुप कहानी।
यह हम इंसानों की
कोई बिखरी हुई कहानी है या
पूरा न हो पाकर उलझा हुआ
कोई रौद्र नाच और प्रलय-संगीत है या
बुरी तरह जकड़ने वाली
कहते-कहते गले पे रुकी हुई कोई कहानी है?
घृणा और कुचक्र से बनी हुई कहानी का
एक वीभत्स रूप है यह, या
कवि लेखनाथ के कथन की तरह
आंसुओं में नहाने वाला,
हाहाकार में ख़ुश होने वाला, और
बाज की तरह पकड़कर उड़ने वाला
और अकेले निर्णय करने वाला है।

मानव शरीर एक घड़ी है,
एक नोबेल विजेता मनीषी
कुछ ही साल पहले कह रहे थे।
कह रहे थे कि
देह इसी तरह सुरीली लय में चलती है।
जगत की भोगी जा रही
दुर्दांत कोरोना-हलचल ने लेकिन
उसी को विक्षुब्ध करना चाहा है;
लेकिन कहीं जाकर यह बुरी तरह हारेगा भी, जब
लोग आंख मलते हुए
छूटकर इसके पंजे से
दौड़ निकलेंगे अपने प्रिय से मिलने।
ताज़्जुब तो यह है कि
इंसान, जिसको न प्रतीक्षा है इसकी,
न कोई मिथक और न लोकवार्ता में वर्णन है इसके बारे में,
न कोई निश्चित चित्र पे सजोया गया है इसे।
इसके अनेक आकारों को खुर्दबीन से देखने वाले हम लोग
कल्पनातीत होते गए हैं।

कितना अवसरवादी है यह,
आया है जब तो
पृथ्वी हप्प अग्नि से धप्प हो गई है।
ध्रुवों के बर्फों के पहाड़ों को थाम न पाकर
तरल धार बनने के लिए वैसे ही छोड़कर
सुस्ताने के लिए बाध्य है।
जब उत्ताल समुद्र की छाल उठ-उठ कर
प्रलय मचा रही है,
आंधी का छत ओढ़ने की कोशिश में
विवश है इंसान
निराधार गाँठ बनकर रहने के लिए।

जो न करने से भी होता था,
वह करना ही नहीं चाहिए था जो,
वैसा युद्ध करके जब
इंसान ने अस्थि और चमड़ी मात्र बाकी रह गए
भूखे बच्चों को यत्र-तत्र बिखेर दिया है।
जो रोते हैं, मगर सुनाई नहीं देते,
केवल मुंह का चलना दिखाई देता है।
लोग जिनको लोगों ने
धन और विश्वास दिया हुआ है,
अदृश्य हैं वो उनके लिए।
और ठीक इसी समय
वैश्विक अवतार लेकर आया हुआ है यह।
इसका एक अनूठा संबंध है
इंसानों से जो
सिर्फ एक विडंबना है।

सब चीज़ों का आख़िरी सार,
सभी यात्राओं की आख़िरी मंज़िल–
इंसान होने के नाते
इसका मचाया हुआ हाहाकार
एक बहुत ही बड़ी आंधी
इंसान के ही हाथों से
धीरे-धीरे खंडित होने वाली है इसकी नियति।
घात लगाकर रहने वालों ने
इसका किया हुआ प्रलय के बाद का समय,
सुबह और शाम, और
भाषा और इंसान की भयानक शक्ति का
कुछ कल्पना किया है या नहीं
कह नहीं सकते,
लेकिन फिर भी कहना नहीं छोड़ेंगे हम।
सुनने वाले के गले में एक दिन सोने की माला लगेगी।
कहने के वक्त यह बीत चुका भयानक कुचक्री की कहानी
केवल कहानी बनकर बार-बार
यादों के प्रदोष कालों में आती रहेगी और
छाया की तरह भागकर चली जाएगी।