बहुत बार सुना है शब्द आत्महत्या
और कई बार किया है उच्चारण भी अपने मुंह से
नतीजा इसका यह कि
पुल पार करते हुए जब दिखी मुझे नदी
तो लगा दी मैंने छलांग और बंद कर ली आँखे
पहाड़ से उतरती आवेगमयी नदी को देखकर
आत्महत्या का ख़याल आना सामान्य है
जायज़ है एकदम !
लेकिन ठहरी हुई नदी में जहां एम सी डी की लगाई जाली
में से सूराख ढूंढकर लोग पूजा का सूखा-बासी सामान
फेंक आते हैं प्लास्टिक-पन्नियां श्रद्धाभाव से
वहाँ रोज़ डूब मरने की कवायद में मुंह लटकाए
रेलिंग पर झूल कर वापस आ जाना
बेईमानी है सरासर ! आत्महत्या के ख्याल के साथ
ऐसा नहीं है कि मौत की कविताओं का मेरा कोई कारोबार है
और इतनी ऊबी हुई हूँ भी नहीं कि आत्महत्याओँ के स्वप्न रोमांच देते हैं मुझे
बल्कि यह कि ज़िंदगी को खोने के रोज़ के डरों से
वितृष्णा हो चुकी है
मालूम होता है हमें कि हर सुबह की सामान्य चहलकदमी
और मुस्कुराहटें दम फुला देंगी शाम तक
आत्महत्याएं हर झगडे के बाद सामान्य खिलखिलाहटों में
बड़ी चतुराई से घुल जाएँगी टेढी आँख दिखाती
मैं फिर से ले जाऊंगी एक अजनबी औरत को बांधकर अपने साथ
लेकिन आज पक्का उसे धकिया दूंगी
दिल्ली के इस पार
खड़े होकर जमुना में !