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कुछ पंक्‍तियाँ / प्रेमशंकर शुक्ल

पानी की ताक़त, सरलता और तरलता
पठनीय है
(लेकिन पानी की कोमलता रोम-रोम को
ज़ुबान दे देती है)

बादल बरस कर लुप्‍त हो जाते हैं
पर्जन्‍य !

रात एक वृक्ष है
जिसकी छाया में सब सोते हैं
(ओस को छोड़कर !)

पानी का पाट
बहुत चौड़ा है । बहते-बहते, तैरते-तैरते
पृथ्‍वी हुई गोल

तुम्‍हारे लट की (लटकी) बूँद !
मेरे सीने में झर कर
भर देती है अंतस्‌ की पूरी एक झील
(यह सूखती नहीं कभी इसीलिए जब-तब
मेरे भीतर झुरझुरी उठ आती है !)

यह गोल पृथ्‍वी ला कर खड़ा कर देती है वहीं
चले थे जहाँ से हम !

तुम्‍हारी हँसी का अँजोर
मेरी खिलखिलाहट में बहता है !