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कुछ पतले पतले धागे / माखनलाल चतुर्वेदी

कुछ पतले-पतले धागे
मन की आँखों के आगे!
वे बोले गीतों का स्वर,
गीतों की बातों का घर,
हौले-हौले साँसों में
टूटा है, जी जगती पर,
प्राणों पर सावन छाया,
जिस दिन श्यामल घन जागे।
द्रव पतले-पतले धागे,
मन की आँखों के आगे।
अपनी कीमत दो कौड़ी--
कर, मैं उनके पथ दौड़ी,
दृग-पथ-गति से घबराकर,
प्रभु-माया हुई कनौड़ी,
ज्यों-ज्यों सूझों ने पकड़ा,
त्यों-त्यों स्मृतियों से भागे।
मन की आँखों के अपने,
वे सपने वाले धागे।
किस देश-निवासी हो तुम,
किस काल-श्याम की भाषा,
कब उतरोगी अन्तर में,
कवि की गरबीली आशा।
मैं सह लूँगा आँखों के।
ये उल्कापात अभागे,
जो पा जाऊँ सूझों के,
मैं पतले-पतले धागे!
क्यों नभ में ये चमकीले,
दाने बिखेर डाले हैं,
किस-दुनियाँ के दृग-मोती,
किस श्यामा के छाले हैं।
ये इतनी टीसों य घन,
मिल गये किसे मुँह माँगे?
मधु-याद-वधू के स्वर के
नव पतले-पतले धागे!

रचनाकाल: अगस्त-१९४५