Last modified on 27 जून 2017, at 10:26

कुछ भी हो / अमरजीत कौंके

कुछ भी हो
अब आँसू नहीं आते
दुख जम जाता है भीतर
पत्थर की तरह

बहुत समय नहीं हुआ
कोई गीत सुनता था
तो रो पड़ता था
कविता पढ़ता
तो आखें नम हो जातीं
किसी को रोता देखता था
तो तड़प उठता था मन
माँ की याद आती थी
तो सिसक उठता था
कई बार अकेले बैठे-बैठे
बहने लगते थे आंसू

अचानक इतने खँजर
पीठ में आ घुसे एकदम
आँखो ने खँजरों वाले
हाथों को पहचाना
और पत्थर हो गईं

कुछ भी हो
अब आँसू नहीं आते
दुख जम जाता है भीतर
पत्थर की तरह...।