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कुछ लिखूँ / राजकिशोर सिंह

चाहता हूँ कुछ लिऽूँ
अपनी बात अपने हालात
लेकिन
नहीं है कलम में ताकत
नहीं है दिल में हिमाकत
बैठता हूँ लिऽने जब
सोचते-सोचते हो जाती
सुबह से शाम
लिऽ नहीं पाता
मेहनत हो जाती बेकाम
अंत में
घबरा जाता मन
काँप जाता तन
क्योंकि

लिऽता हूँ अहंकारवश
अपने ही घर में
पढ़कर अपनी कविता
मारता स्वयं ताली
और चलाता कुदाल
अपने पर ही मैं
जन्म से गया नहीं कभी प्रदेश
बदला नहीं अपना वेश
घर में पता नहीं चली
दुनिया की अंगड़ाई
दुनिया की गहराई
बताओ कैसे लिऽोगे अपनी बात
दुनिया के अऽबार में
इस आध्ुनिक संसार में
क्षेत्रा जिध्र का लो तुम
चलेगा पता
वह आगे है तू पीछे है
वह ऊँचे है तू नीचे है।