जी को लगती है तेरी बात खरी है शायद
वही शमशेर मुज़फ़्फ़रनगरी है शायद
आज फिर काम से लौटा हूँ बड़ी रात गए
ताक़ पर ही मेरे हिस्से की धरी है शायद
मेरी बातें भी तुझे ख़ाबे-जवानी-सी हैं
तेरी आँखों में अभी नींद भरी है शायद!
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कोई तो साथ-साथ मेरी बेख़ुदी में था
मैं कैसे अपने होश में आया ज़वाब दो
उम्मीदे-वस्ल हो, कि बहाना हयात का
तुम मेरे दिल में हो, मेरे दिल का ज़वाब दो!
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तू मेरे एकान्त का एकान्त है
मैं समझता था कि मेरा तू नहीं ।
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इश्क़ की इन्तहा तो होती है
दर्द की इन्तहा नहीं होती
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ख़याल भी है मेरा जिस्म, गो नहीं वह मैं
य ज़िन्दगी की है इक़ क़िस्म, गो नहीं वह मैं
जो होने-होने को हो, वो मैं हूँ-- यक़ीन करो
ख़ुदा भी है मेरा ही इस्म-- गो नहीं वह मैं
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कितने बादल आए, बरसे औ गए
जिनके नीचे मैं पड़ा सुलगा किया!
छिपके बैठे मेरे दिल की चोट में
आपने अच्छा किया, पर्दा किया
रुक गए हैं क्यों ज़मीनो-आसमाँ
कुछ कनखियों से इशारा-सा किया!
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