सायबर सिटी की व्यस्ततम सड़क पर
भटकता बढ़ा जा रहा था श्रमिक जोड़ा
आगे पुरुष के कन्धे पर
नुकीली, वज़नी, पठारी खंती थी
पीछे स्त्री के सिर पर
छोटी-सी पगड़ी के ऊपर
टिकी थी
स्वतन्त्र कुदाल
कला दीर्घाओं में
स्त्रियों के सर पर
कलात्मकता से टिके मटके देख
आँखें विस्फारित हो जाती थीं मेरी
पर कितना सहज था वह दृश्य
अब केदारनाथ सिंह मिलें
तो शायद मैं उन्हें बता सकूँ
कि कुदाल की सही जगह
ड्राइंगरूम में नहीं
एक गतिशील सर पर होती है।