राज सभा वही थी, शासन भी खुद का था,
बस एकता की कमी थी, यही एक दुःख था।
पाँचों ही पांडव पति,
जिनकी फिर गई थी मति,
सत्ता रूपी द्रोपदी, बचा नहीं पायेँ,
कौरवों के हाथों खुद ही हवाले कर आये।
कितने दिन असहाय सी,
चिल्लाती और रोती हुई,
चीर तो बड़ा नहीं, पर,
लोक लाज खोटी रही।
पर यह द्वापर की द्रोपदी नहीं,
जिसकी लाज श्रीकृष्ण बचा लेते,
न ही था कोई दुर्योधन,
जिसे अदृश्य शक्ति से हरा देते,
आज हाय? कल युग है,
कहते इसे जनयुग हैं,
अब पांडव खुद ही,
अपनी द्रोपदी को लूटते हैं,
और अपनी हवस हेतु,
जनता रूपी कुंती को कूटते हैं।
अतः कुंती भी कुंठित है,
अराजकता का आसार है?