जीवन का यह कौन-सा पाठ है
जब जीवन की बुनियादी जरूरतों को बिसरा कर
हम जीने लगे हैं सनक भरी किस्सागोई को
मसलन मुल्क के नाम पर अब हमें याद नहीं आते
उसके बाशिंदे उनकी ज़िंदा ज़रूरते
उनके सुख-दुःख उनके गीत-गान
अन्याय के खिलाफ़ उठी उनकी आवाज़
उनके असली सच और नकली झूठ
आसुओं से लबालब आँखे ख़ुशी से खिले चेहरे...
हमें याद है फ़कत उनकी जात-बिरादरी
उनकी नस्ल ,रंग, उनका हिंदू मुसलमान होना
खूँ में डूबी उनकी हिकारत और बदचलनी
या फिर भाषा में उनका खामखा ब्राह्मण होना
कुछ लोग इस कुपाठ को प्रयत्नपूर्वक ज़िन्दा रखते हैं
फिर भी पूजे जाते है पीरो-पैगम्बर की तरह!