Last modified on 28 फ़रवरी 2009, at 01:59

कुली / सौरभ

बोझा ढोता बीड़ी सुलगाता हँसता
    स्टेशनों पर सुस्ताता
हर जगह नजर आता है कुली
रोज़ कुआँ खोद पानी पीता
कोई पहुँचा हुआ फकीर है कुली
वह जो दबा हुआ सा दिख रहा है
बोझ के तले
महँगाई ने उसे झुका रखा है
दब गए हैं उसके सपने
नष्ट हो गई हैं इच्छाएँ
चढ़ाई चढ़ता साहब लोगों को होटल दिखाता
सहता है उनके ताने
सुन रखा है उसने
कुत्ते का भी दिन आता है
उसका आएगा या नहीं
इसी सोच में
छंग का एक और गिलास गटकता है
और चल देता है अपने डेरे की ओर
झूमता हुआ।