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कृतज्ञ-हृदय / मुकुटधर पांडेय

देकर के निज उर में पृथ्वी मुझको आश्रय-दान
करती है चुपचाप सहन यह मेरा भार महान् ।

यह विचार, देकर सब पत्ते उसे सहित अनुराग ।
रिक्त हस्त होकर के तरु ने प्रकट किया निज त्याग ।

किन्तु शीघ्र ही पहना करके उसे हरित परिधान
किया प्रकृति ने उसको सुन्दर पुष्पाभूषण-दान

उधर भूमि ने उसके पत्तों का करके स्वीकार
खाद्य-रूप में लाकर, उसका किया विविध सत्कार ।

देख रत्नगर्भा का ऐसा अति उदार व्यवहार
लज्जित होकर तरु ने अपने मन में किया विचार—

दिनकर यह जो देता उसको है जल बहु-परिमाण
करता भी है निर्दयता से शोषण उसके प्राण ।

मैंने अर्पित किया उसे ख़ुद अपने पत्र उतार
तो भी वह करती है उससे मेरा शत-उपकार ।

उसके विस्तृत हृदय-सिन्धु का कहीं न पाकर कूल
चाहा उसने कृतज्ञता से इसे चढ़ाऊँ फूल ।

पर, इस कृति के साथ-साथ ही पाकर फलोपहार
झुकने लगी नम्र हो अतिशय उसकी प्यारी डार ।

है कृतज्ञता-पूर्ण हृदय की महिमा अति विख्यात,
कर्म और फल दोनों ही का यह अद्भुत्त अनुपात ।।