मेरी हर कृति
मेरी पुत्री है;
जिसे जन्म देने के बाद मैंने
कई बार काट-पीट, संशोधन करते हुए सँवारा,
भाषा के सुन्दर वस्त्र पहनाए
नये-नये बिम्बों और प्रतीकों की मदद से
कल्पना के दिव्याभूषणों से किया सज्जित उसे।
एक श्रेष्ठ पत्रिका के
सार्वजनिक मंच से
मुखरित होकर उसने
प्रतिभा अपनी दिखलाई ज्योंही तभी
जजमानी के चक्कर में
आलोचक पंडित
उसका गुणगान कर उठा
पाठक के समक्ष।
रजामंदी मिलते ही
प्रकाशक भी तत्पर हुआ
पाठक के साथ उसका
जीवनभर का गठजोड़ करवाने।
पुस्तक छपने के बाद
लोकार्पण-रूपी उसके परिणय का
किया गया शानदार उत्सव भी।
जिसके पश्चात
भरे नयनों से मैंने
अपनी सुन्दर, सुयोग्य पुत्री को
सौंप दिया पाठक-वर के समक्ष।
लेकिन सदियों से चली आई कुप्रथा से
काली कमाई के आदी हो चुके
उस प्रकाशक ने
दहेज के लालच में
अपने काले धन का थोक खरीद में प्रयोग करते
मेरी उस पुत्री को
पाठक से पृथक कर
डाला सरकारी पुस्तकालय की कारा में।
और विरोध करने पर
उसे ऐसी धमकी दी...
'ज्यादा चूँ-चपड़ की तो
रद्दी की मिट्टी का तेल उसके तन पर डाल
जला दिया जाएगा उसको!'
बीत गए कितने ही दिन,
महीने और साल भी,
मेरी श्रेष्ठ कृति-पुत्री
बहाती है रोज
आठ-आठ अश्रु;
थोक खरीद वाली लाइब्रेरी की
तिहाड़ जेल में बंदी
उसे नहीं दिया जाता है मिलना
उसके सौभाग्य से;
क्योंकि अब नहीं है किरन बेदी-सी
जेल की सर्वोच्च अधिकारी कोई;
जिसे तिहाड़ जेल के
जंग खाये नियमों-कायदों वाले
तालों को तोड़कर
जेल के ही भीतर
नये आधुनिक सुधार
लागू करने के उपलक्ष्य में
नवाजा गया
मैगसैसे ऐवार्ड से!
मेरी तीन पुत्रियाँ ही
मेरी श्रेष्ठ कृतियाँ हैं।
जिन्हें मैंने
संचित आदर्शों से प्रेरित हो
आन्तरिक गुणों की
मुखर व्यंजक शक्तियों से
बनाया पर्याप्त सक्षम
और प्रतिभाशाली
प्रकृत-रुचिकर अपने-अपने कर्म से।
और जो
अपने परिणयोत्सव से पूर्व ही,
समाज के सुदूर दिग्-दिगंत में
अपनी धवल कीर्ति का
कर रहीं प्रसारण।
समाज का हर सहृदय,
संवेदनशील व्यक्ति
उनके कर्मवाची शब्दों का
पाठक भी श्रोता भी।
पराए घर के धन को ठीक तरह से सँजो रख,
आखिर सौंप ही देना होता उसे
उसके नवनिर्मित घर अपने को।
कृति जो मेरी पुत्री थी
मेरी भी कहाँ रही?
प्रकाशित होने के बाद
हो गई पढ़े-लिखे
समूचे समाज की,
करते हुए भिन्न-भिन्न विमर्श
भिन्न-भिन्न स्थानों पर।
मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना।
पुत्रियाँ जो मेरी ही कृतियाँ थीं,
परिणय के बाद वे
कहाँ रहेंगी मेरी?
हो जाएँगी
किसी और की!
अपने आचरण के अनूठे शब्दों को
समूचे समाज के समक्ष
रखते हुए
यह उत्तर आधुनिक विमर्श :
कि क्यों ऐसा होता है
पुत्री को ही मात्र छोड़ना घर होता अपना।
क्यों उसके जन्म पर
नहीं खुशी होती
समाज के बहुत बड़े तबके को?
सुन्दर या असुन्दर किसी कृति के रचने पर
कालजयी हो अथवा सामयिक,
अल्प पृष्ठों वाली
अथवा महाकाया,
वरिष्ठ, सिद्धहस्त या नवोदित हो
क्यों होता है रचनाकार को अविस्मरणीय सुख या उल्लास,
क्यों उसका रोम-रोम नृत्य कर उठता है मयूर की तरह!
यह सवाल इतना तो कठिन नहीं फिर, भी
हमारे इस आलोचक समाज ने
बना दिया है इसे
बेहद जटिल पहेली।
आपमें से क्या कोई
एक भी मनीषीजन ऐसा है
जोकि कृपापूर्वक मदद मेरी करे
हल करने के लिए
जीवन की इस कठिन प्रमेय को?
मेरी बीहड़ आशावादिता कहती है मुझसे
इस विराट पृथ्वी पर कहीं तो
काल की अनन्तता के बीच कभी
मिलेगा मुझे महाश्रमण वह
जिसके दिव्य सम्पर्क में आकर
कलुषित आत्मा की
निगूढ़तम गहराइयों तक
आनन्दित होकर मैं
समाज को नवजीवन और
नवोत्साह
देने की क्षमता वाले
उस अद्भुत मन्त्र का
प्रसार कर सकूँ
सर्वत्र।