दौड़ रहा मैं इधर-उधर गतिपथ से हट कर,
देखा कभी न हृदयचक्षु से पीछे मुड़ कर।
कृपा-दृष्टि की किरणमालिका अनलवृत्त बन,
चमक रही करने आलोकित अन्तर्लोचन।
पवन तुम्हारी कृपादृष्टि का भूमण्डल पर,
बहता ही रहता निशि-वासर हर-हर ध्वनि पर।
कृपा तुम्हारी शीतकाल में वरद तुहिन-सी,
तीव्र दहन में आर्द्र बनाती कज्जल घन-सी।
कृपा तुम्हारी अन्तरिक्ष में स्वर्णतड़ित वन,
काली निबिड़ निशा में कभी कौंधती प्रतिक्षण।
अमृतनिर्झरी कृपा बरसती जड़-चेतन पर,
सर्वकाल में दाएँ-बाएँ नीचे ऊपर।
लेकर अंश तुम्हारी कृपा-किरण का जलधर,
प्यास बुझाते वसुधा की, सागर से जल भर।
उठती रहती जिसकी प्रतिध्वनि हिमशिखरों से,
सर्पिल कुण्डलियों में बल खाती लहरों से।
कर पाते अनुभूति न जिसकी बहिष्प्रज्ञ जन,
हतप्रभ होते दुखविभीषिका का कर दर्शन।
रचा विधान दुखों का तुमने क्या न कृपा कर?
सहन उन्हें करने का दो बल अन्तर में भर।