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कृष्टि / राधावल्लभ त्रिपाठी

धरती के अंग-अंग में
सबेरे की धूप के थक्कों जैसे
आज भी खिलते हैं कितने-कितने
अरविन्द
गाय के खुर जैसे कीचड़ वाले गड्ढों में
पोखरों में
बंगाल में बिहार में या उड़ीसा में।
नष्ट नहीं होते अरविन्द
फिर-फिर खिल जाते हैं
एक के मुरझाने पर
दूसरा खिल उठता है अरविन्द
नभ में ऊपर मुँह किए हुए
ताप पीता हुआ सूरज का।

जितनी ही कीचड़ में लिथड़ी मल से पिच्छिल
जितनी ही पुरातन सनातन सुस्थिर शाश्वत
यह धरती होती है खीझती हुई बुढ़ाती हुई
उतनी ही ताज़गी और सुर्खी
अरविन्द की पौध पर होती है
वह ही धरती का यौवन है।