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कृष्णा कुमारी / अर्जुन देव चारण

कृष्णा कुमारी उदयपुर की राजकुमारी थी। उसका रिश्ता जोधपुर के राजा भीमसिंह के साथ निश्चित हुआ था किंतु भीमसिंह की असमय मृत्यु होने से कृष्णा कुमारी के पिता ने उसका रिश्ता जयपुर के राजा के साथ कर दिया। जब कृष्णा कुमारी से विवाह करने जयपुर के राजा ने प्रस्थान किया तो जोधपुर के राजा मानसिंह ने इसे स्वयं का अपमान माना और बारात लेकर खुद उदयपुर रवाना हो गया। उदयपुर रियासत के समक्ष बड़ी समस्या खड़ी हो गई। जयपुर और जोधपुर के राजा उदयपुर की राजकुमारी को अपनी-अपनी मांग मानते हुए, धमकी देते हैं कि यदि उदयपुर रियासत ने उनकी बात नहीं मानी तो युद्ध होगा। उदयपुर रियासत के दरबारी इस संकट को टालने के लिए अनेक विकल्पों पर विचार करते हैं परंतु समस्या का हल नहीं सूझा। अंततः उदयपुर के दरबारी तय करते हैं कि इस पूरी समस्या की जड़ राजकुमारी कृष्णा कुमारी है इसलिए यदि राजकुमारी को ही मार दिया जाता है तब राज्य पर आया यह संकट समाप्त हो सकता है। दरबारी अपने राजा के समक्ष यह प्रस्ताव रखते हैं। राजा इस सलाह से सहमत होकर पूछता है कि उसे मारेंगे कैसे? दरबारी उत्तर देते हैं- जहर देकर। राजा प्रतिप्रश्न करता है- जहर देगा कौन? तब दरबारी कहते हैं कि जिसे राज्य चाहिए अर्थात राजा स्वयं। उदयपुर का राजा जहर का कटोरा लेकर अपनी बेटी के पास जाता है और बेटी वह जहर पी लेती है। उस बेटी की पीड़ा की अभिव्यक्ति करती है यह कविता-

मेरे प्रिय पिताश्री!
शुभ दिन था आज
मेरे विवाह का
करना था मुझे वरण
मेरे देवता का
आप मृत्यु को निमंत्रित कर आए
आपका आदेश शिरोधार्य
लो, अंगीकार है।
मैं आपकी प्रिय पुत्री
मुझे भयमुक्त करने के लिए
आपने इसे
सोन-कटोरे की पालकी बिठाकर भेजा।

किस पुत्री के भाग्य होते हैं ऐसे
कि मरे अपने पिता के हाथों,
मेरे सुखार्थ आपने ढूंढ़ निकाला
ऐसा मार्ग मुक्ति का।

सिर्फ घूंट भरने की देरी है
मेरे इस घूंट के लिए
आपको घूंट नहीं पीने दूंगी पिताश्री।

आपके प्राण मेरे प्राणों से प्रिय हैं
मैंने तो कितना जीवन जिया
और जी कर भी क्या कर लूंगी?
आपको अभी अनेक काम करने हैं,
आपको युद्ध लड़ने हैं
आपको जमीनें छीननी हैं
आपको मनुष्यों को मारना है
आपको जश्न मनाने हैं।
पिताश्री आपके मरने से
हो जाएगा पूरा मुल्क अनाथ,
बेटियों के मरने से
नहीं होता अनाथ कोई पिता!

आप तो सदा रहेंगे पिताश्री,
हम नहीं रहेंगी कभी।
हर युग में
हर मुल्क में
आप होंगे
और आपके बेटियां होंगी,
आपको बचाने के लिए
विधाता भी कैसे-कैसे औजार बनाता है
पिताश्री
क्या वह भी आप जैसा ही है?
तब तो मुझे
वहां से भी वापसी करनी होगी
बेटियों का भगवान अलग क्यों नहीं होता पिताश्री!

पिताश्री,
कभी किसी पुत्री के कहने पर
कोई पिता क्यों नहीं देता अपनी जान?
हर युग
अक्षरों का तीक्ष्ण ताप
हमारे हिस्से ही क्यों आता है
हम ही क्यों जलती हैं?
मां-बाप तो
कभी भख नहीं लेते पिताश्री?

सोन-कटोरे दूध पिलाने का अर्थ
पिता के हाथों पहुंचते-पहुंचते अपना अर्थ ऐसे बदल देगा
यह तो मैंने कभी सोचा भी न था।

पिताश्री
भगवान के निमित्त
बलि चढ़ाने की वेला
आपको अवश्य ही मेरी याद आएगी,
मैं आपकी बलि
सिंहासन की सुख शांति के लिए
हमेशा
ऐसे ही प्रयुक्त होऊंगी
स्वयं के भाग्य को सराहते हुए।
धन्य थीं मेरी पीढ़ियां
धन्य हूं मैं स्वयं
धन्य होगा
मेरा आगत स्वरूप।

बेटियां नहीं होती तो आप
किसे बेचते
खरीदते किसे
नहीं होती बेटियां तो
किसका करते चीरहरण
किसे लगाते दांव पर
नहीं होती अगर बेटियां
तो किसको देते वनवास
किसे बनाते पाखाण-शिला अचंचला
नहीं होती बेटियां तो
किस प्रकार परिपूरित होता
आपके मर्द होने का गर्व
नहीं होती बेटियां तो
कौन सजाता सेज
कौन जलाता चिताएं
कौन पैदा करता
आपकी पुश्तें गुणहीन
नहीं होती बेटियां तो आज
आप किसको मारते
किस प्रकार बचाते स्वयं को


हम आपका रक्षाकवच हैं पिताश्री
जैसे जी चाहे धारण कीजिए
हमारा धर्म है आपको बचाना।

पिताश्री
बेटियां कृतघ्न नुगरी क्यों नहीं होतीं?
आपका ही तो होती हैं वे अंश
फिर क्यों होती हैं वे इतनी अलग आप से,
हमारे भीतर
कौन रख जाता है
दूसरी आत्मा?

बेटियां हैं तो घर है
घर है तो भरोसा है
भरोसा है तो प्रीत है
प्रीत है तो जीवन है
जीवन है तो सांसें हैं
सांस है तो आस है
और इसी आशा के बलबूते
आप हैं।
यदि नहीं होतीं हम, तो
आप सब एक जैसे हो जाते
फिर किस तरह बचाते यह दुनिया आप।

हम कहानियों में होती हैं
किंतु स्कूल में आप होते हैं
हम धान में होती हैं
किंतु रोटी में आप होते हैं
हम वृक्ष में होती हैं
किंतु छाया में आप होते हैं
हम मकान में होती हैं
किंतु दीवार पर आप होते हैं
हम लपटों में होती हैं
किंतु अग्नि आपकी कहलाती है
हम हवा में होती हैं
किंतु महक आपकी कहलाती है
हम सूनेपन में होती हैं
किंतु आकाश आपका कहलाता है
हम ही बहती हैं बन कर नदियां
पहुंचती हैं एक स्थान से दूसरे स्थान
परंतु समुद्र आपका कहलाता है।

हमीं रचती हैं रजकणों में
पर धरती आपकी कहलाती है
बातों-ख्यातों में लिखा जाएगा आपका नाम
जिन्होंने मर्यादा निभाई
क्षीण रसना को जहर सौंपा।
पिताश्री
आपकी मर्यादा और रस्मो-रिवाज
सदा ही कुदरत की आत्मा को
क्यों दग्ध करते हैं?

नहीं रहा आपका
अपनी जबान पर जोर
नहीं रहा आपके
हाथों-पैरों में करार
नहीं रहा आपके अंतस सत
तो क्या यह मेरा दोष है?
मुझे कटोरा देने से पहले
एक बार तो देखा होता
अपना अक्श उसमें
एक बार तो स्वयं से पूछा होता सवाल
मृत्यु का भय
आप से अधिक कौन जानता है पिताश्री
क्या मुझे मार कर
आप अपनी तरफ रेंगती
मृत्यु को रोक सकेंगे
ऐसी अमरता की आशा
ईश्वर किसी पिता को नहीं सौंपे
हमारी सांसें
आप पर
ऋण हैं पिताश्री।

अनुवाद : नीरज दइया