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कृष्ण को पढ़ते पढ़ते / शुभा द्विवेदी

हूँ नहीं अब
क्या इसलिए कमरे में
अँधेरा किये हो
या फिर मैं अंधेरों में रहना पसंद करती थी
इसलिए अँधेरे में बैठे हो
एक सच कहती हूँ तुमसे
जानती हूँ दैहिक रूप में नहीं हूँ
परन्तु शब्द रूप में हूँ जो ब्रह्म स्वरुप हैं
जिन्हें सुन सकता है तुम्हारा अंतस
अंधेरों में रहती थी इसलिए
महसूस कर सकूँ मानवता का जार-जार होना
महसूस कर सकूँ की कैसे
पाषाण युग से आते-आते
अभी भी काल अवशेष शेष हैं मानव में
गहरे उतार सकूँ टूटती मानवता की सिसकियों को
सुन सकूँ घुटी हुई चीखों का शोर
अनुभव कर सकूँ असहनीय ताप को
ऐसा ताप जो देह ही नहीं वरन आत्मा को भी जला दे
उजाला स्वरुप है "कृष्ण" का
जहाँ प्रकाश वहाँ सिर्फ हमेशा विद्यमान चिरंतन प्रेम
और जहाँ कृष्ण वहाँ केसा अन्धकार
बस यही विश्वास लिए रही हमेशा
गर उजालों में आयी और
पाऊँ अँधेरा सदृश,
क्या घटेगा विश्वास
कैसे आती उजालों में
नहीं खोना चाहती थी विश्वास
थी एक कृष्ण की ही आस
इसलिए स्वीकार करती रही
अँधेरे को,
हूँ नहीं अब
इसलिए तुमसे कहती हूँ
निकलो उजालों में
मैं मिलूंगी तुम्हे वहीं
किसी लुक छिप करती किरण में
या पक्षियोँ के कोलाहल में
या मिलूंगी तुम्हें बहती नदी के
अनहद नाद में
कभी कभी देखना हरसिंगार को
मिलूंगी उसकी खुशबू में
बैठे हो अँधेरे में क्या इसलिए की
मिलूंगी मैं तुम्हें इस स्याह में
ओह! नहीं, नहीं
मैं हमेशा ही मिलूंगी तुम्हें
मार्गशीर्ष की धूप में
या सावन की पुरवैया में
कभी कभी मिलूंगी तुम्हें फागुन के रंगों में
झूमती मिलूँगी तुम्हें अमलतास के पीत पुष्प गुच्छों संग
ज्येष्ठ की तप्त दुपहरी में
महसूस करना मिलूंगी तुम्हें
संध्याकाल नीराजन की सप्त रश्मियों में
आओ! आओ निकलो मेरे साथ
बाहर, सहन में बिखरी धूप में
मिल जाउंगी तुम्हें अधलेटी
कृष्ण को पढ़ते पढ़ते।