बिल्ले हुए अब बाघ, केंचुए नाग हो गए
किरपा से राख कोयले भी आग हो गए।
कुएँ खोदकर भी कुछ प्यासे ही खड़े रहे
कुछ पी, धो-नहा कर बाग-बाग हो गए।
अ से अमरूद, जिन्हें आ से आम ना पता
वे महान ज्ञ से ज्ञानी, बड़े ही भाग हो गए।
वन्दन में मगन रात-दिन वे वसन्त से खिले
निष्ठा हो या लगन, सब पूष-माघ हो गए।
कौवे- काँस्य पा गए, बगुलों ने रजत मढ़ा
स्वर्ण पदक गिद्धों के भजन-राग हो गए।
पारी की प्रतीक्षा में, तट पर मौन कुछ खड़े
कुछ पवित्र हो, गंगा में बुलबुले झाग हो गए।