हम अपने बचपन की केंचुली को,
धीरे धीरे उतारते हैं,
बीते सालों पर नज़र डालते हैं,
और अपने बचपने पर हँसते हैं,
समझ की लकीरें,
बचपन के कोरे नक़्शे को,
भर देती हैं...
फिर हमें फ़कत लकीरें दिखाई देती हैं,
सीमाएं दिखाई देती है,
बस नक़्शे का कोरापन नहीं दिखता
तब....
हमें अपनी उतारी हुई केंचुली,
अचानक,
सुन्दर नज़र आने लगती है....