केन्दुली
थी वीरों की भूमि
बाँकुरों का वन-प्रान्तर
जहाँ मेदिनीरूप धरा ने
अपना धाम बसाया था
उस
स्मृतिशेष देश की वर्षा
में बिन पानी
भीग रहा है शान्ति निकेतन
और लालमाटी में हम-तुम
राढ़ देश की परिपाटी में
विद्या कला निपुणता कौशल
राँगा लोटा और धौंकनी
ताँबा-जस्ता लोहा-सीसा
त्याग तपस्या काम क्रोध मद
लोकतन्त्र के लाभ लोभ पद
भस्म रसायन वात पित्त कफ
चिमटा ढोल मँजीरा औ’ ढफ
पंचम स्वर की चंचल आँखें
वो नौटंकी ये नक्कारा
गाँव केन्दुली का मैं बाउल
बिना तार का मैं एकतारा
बोलो किस जात्रा पर जाऊँ
जहाँ तुम्हारे गीत सुनाऊँ
श्रीजयदेव आज तुम होते
तो तुम लिखते
खेत कहाँ खो गये
धान्यश्री भस्म हो गयी
जठरानल के अग्निकांड में
विकल विश्व छटपटा रहा है।
नुचा-खुचा यह चाँद
शारदीया का ऊपर उठ आया है
जैसे ठुनकी दे-देकर पतंग को लड़के
तान दिया करते थे ऊपर आसमान में
नयी हवा की धारा में
बहते जाते हैं स्त्री-पुरुष उलंग
इन्हें चाँद का अमृत
नहीं जिला पाएगा इनकी देह धातु से निर्मित
इन्हें चाँद जैसी कोमलता व्याप न पाती
उधर दूसरी ओर धमनभट्ठी है जिसकी
लपट दूर तक फैल रही है
मन में आत्मा में शरीर में
देश और दुनिया में फैला हुआ ताप है
और हवा में भी बुखार है
और लोहा है
लौह-अयस्क लूटने वाले
पृथ्वी-पार दूर देशों से
चीर-चीर पाताल यहाँ तक आ पहुँचे हैं
क्योंझर, झरिया, रानीगंज
बाइलाडीला, बोंडामुंडा
खनिजों के ये खेत
या कि कुरुक्षेत्र है
तभी उठी वह हवा कि जिसमें रहते बादल
जिसमें पानी जिसमें जीवन जिसमें अमृत
पुरवइया में जंगल का संगीत भरा था
जिसमें आर्द्रा नाच रही थी रिमझिम रिमझिम
उसके कुन्तल की सुगन्ध उड़ती-छितराती
फैल रही थी दिशा-दिगन्तर
चन्दनवन-सा महक रहा था वह पलाशवन
वृक्ष शाल के नहा रहे थे उस वर्षा में
श्री जयदेव महाकवि का मानस पुलकित था
किन्तु क्रोध में खनिजों का आखेटक
रह-रह दहक रहा था
लाभ-लोभ का वह ध्वज-वाहक
टूट पड़ा दुनिया-जहान पर
कोई खास विरोध नहीं था
बिना युद्ध के हार मान कर
नीचे बिछी पड़ी थी दुनिया
वज्र फेंकने के पहले थोड़ा मुस्काया वह आखेटक
चन्द्रहास का हास चमक कर
तुरत छुप गया उसी म्यान में
नयी नीति का जाल बिछा कर
अर्थशास्त्र की बानी बोल रहा था तस्कर
तभी कहीं से उड़ते-उड़ते आशाओं के पक्षी आये
कुछ व्यवधान हुआ लेकिन फिर तोपें छूटीं
तुमने तो सब देखा बाउल
आशाओं की भली चलायी
आशाओं को कोई गोली मार न पायी
तुमने सब कुछ देखा लेकिन
इतना बड़ा झूठ क्यों बोला इब्नबतूता
तवारीख़ लिखने वालों ने नहीं बताया
क्योंकर उजड़े अमन के चमन
फूलों का इतिहास लुप्त है
कितनी किस्में जीव जन्तुओं की औषधियाँ कितनी
लुप्त हो गयीं केवल पिछले दस सालों में
गयी विविधता कहाँ खो गया जीवन-वैभव
मनुष्यता ही लुप्त हो गयी मृत्यु-लोक से
स्वार्थसिद्धि के कंगूरों पर बैठे छाया-गिद्ध
तुम्हारे पंजों से क्या टपक रहा है
भूत भविष्यत् वर्तमान किसका है यह अवशेष
देश यह किसका है इतिहासकार
सचमुच के गिद्ध न जाने कब के लुप्त हुए
जो पृथ्वी को विषहीन बनाए रखते थे
लेकिन तुमने तो विष घोला इतिहासकार!
तिस पर भी कुछ तो बचा रहा
ज्ञान के वृक्षों पर अमृत-फल आते रहे
भले आँधियाँ चली
खुरपी-कुदाल कन्नी-बँसुली
चूल्हा-चक्की लोटा-थाली
तकली-करघा छप्पर-छानी
मसि-कागद-कलम और बानी
जीवन के ये कुछ समुपकरण जो बचे रहे
जिनके जीवट का लिखना था इतिहास तुम्हें
पर तुमने तो लिख दिया पँवारा राजा का
इतने असत्य के बावजूद
सूर्योदय अब भी होता है
अब भी समुद्र में है पानी
राढ़ देश की लाल-लाल माटी में खिलते
अग्निपुष्प तुम क्षमा करो
रुको! अभी दावाग्नि मत बनो
शैल-वनों के भूतल में मणियाँ हैं
कौतुक भरे हुए हैं
जिनको तुलसी की आँखों से
अब के कवि भी देख रहे हैं,
यह प्रपंच मानव-मृगया रोको, आदरणीय मंच!
ओ नदियों की सखियो, कुछ तुम भी तो सोचो!
बहुत ज़रा-से हिरन बचे हैं भारत-भू पर
इन्हें प्रगति की गति के सारे भेद पता हैं
इनसे सीखो
धवल-चाँदनी, चपल-नृत्य, चंचलानदी
जो कोयले की चट्टानों पर ही बहते-बहते
धवल हुई
इन सब का भी यह प्रान्तर है
जितना भी है शेष देश इनका भी है यह
यह पहाड़ इनके भी तो हैं
इन्हें न खोदो
इतना लोहा लेकर आख़िर क्या करना है!