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केवल पश्चाताप / संध्या पेडणेकर

किए हुए पापों का
अनजानी ग़लतियों का
दूसरों से खाए धोखों का
ख़ुद खाई चोटों का
कहे हुए शब्दों के लिए
अनकहे शब्दों के लिए
झुकी आँखों का
उठे हाथों का
लरज़ी जबान का
घुटी साँसों का
अंत में है
केवल पश्चाताप!

सूरज की रश्मियों से
होड़ न ले पाने का
सहस्त्रबाहु से
तुलना किए जाने का
चाँद की कलाओं को
मात न दे पाने का
चाँदनी की शीतलता को
जज्ब न कर पाने का
लू चलाती गर्मी में
झुलस झुलस जाने का
शैशव को खोने का
जवानी की फिसलन का
प्रौढ़ झुर्रियों का
बुढ़ापे की लाठियों के
टूट टूट जाने का
बालों की कालिख में
सफेदी के झांकने का
उजले चरित्र पर
कालिख़ के पुतने का
पड़ोस की गुडिया पर
जवानी चढने का
गठिया की गोली
दिन-रात निगलने का
उभारों को टटोलती
चोर-निगाहों का
हुलसे क्षणों का
फिसले पलों का
भरपूर पाकर भी
कटोरी छूटने का
घिसी साडी में
जर्जर देह का
डपट खाकर
दाँत निपोरने का
आशाएँ जगाकर
निराशाओं को पाने का
पाई ख़ुशियों की
कमियाँ गिनाने का
वरदान पाने का
शाप भोगने का

अंत में है
केवल पश्चाताप!!