Last modified on 26 फ़रवरी 2020, at 18:01

कैद में हूँ / अरविन्द भारती

कभी मेरे आगे
कभी मेरे पीछे
कभी साथ-साथ चलती है
मै दो कदम बढ़ाता हूँ
वो चार कदम चलती है
जहाँ नहीं होता मौजूद
वहाँ भी पहुंच जाती है
मुझ से पहले ही पहुँचती है
जाति मेरी

और
जहाँ नहीं पहुँच पाती
वहाँ पूछते है नाम
पूरा नाम और पता
करते है एक्सरे
कभी इस एंगिल से
कभी उस एंगिल से
जैसे मैं किसी और गृह का प्राणी हूँ
असल में जानना चाहते है जाति मेरी

उसके बाद
जाति दिखाती है अपना रंग
ये सिलसिला अब से नही
तब से है जबसे मैं गर्भ में था
तभी से पीछे पड़ी है जाति मेरे
और पैदा होते ही
कर लिया है अपहरण मेरा
तभी से मैं उसकी कैद में हूँ

मै बेचैन हूँ
छटपटाता हूँ
चाहता हूँ उससे मुक्ति
मेरी इस मूर्खता पर
वो हंसती है
खिलखिलाती है

मै धुनता हूँ अपना सर
क्योंकि मरने के बाद भी
नही मरती है जाति।