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कैलेंडर में धूप / कुमार रवींद्र

आज फिर
कैलेंडर में धूप है
तारीखें गंधों की
    आओ, दीवारों पर टाँगें
         एक नए सूरज का जन्मदिन
 
पिछली तारीखों में
रात थी - कोहरे थे
असमी संध्याएँ थीं
घटनाएँ थीं उदास
थकी हुई साँसें थीं
वन्ध्या आस्थाएँ थीं
 
किन्तु आज फिर
   वसंत के दिनांक हैं
      किरणें हैं आतुर कमसिन
 
कितने ही
आतप-वर्षाएँ
पतझर औ' बर्फ झेलकर
लौटे हैं
ऋतुराजी सपने
गीतों के लेकर आखर
 
और गये वर्ष को उतार कर
              फेंक रहे पलकों से
                       नए-उगे छिन