कैसा युग निर्माण हुआ है।
रोना ही मुस्कान हुआ है।
जिनको भी तरजीह दिया वो,
उनसे ही परिशान हुआ है।
भोला-भाला लगनेवाला,
झंझट का सामान हुआ है।
दुःख में रोज़ बुलाने वाला,
सुख में वह अनजान हुआ है।
रुतबा देख के मेरा साथी,
कोयला का वह खान हुआ है।
बिन बोले बिन सुने ज़माना,
शक़ पर तीर कमान हुआ है।
मिलना था उस वक़्त कहाँ था,
अब ‘प्रभात’ प्रस्थान हुआ है।