सोचती हूँ...
कैसा होगा अंत समय वह
कैसी होगी शाम घनेरी,
सोचती हूँ....
होगा क्या संघर्ष मृत्यु से?
पथरीली होगी पगडंडी?
सूर्य डूब रहा होगा जब
बिखर रही होगी जब मंडी,
स्मृतियों को आंचल में बांधे
जाने की जब बारी मेरी,
कैसी होगी शाम घनेरी...
सोचती हूँ...
राह मिले हैं पथिक बहुत पर
कुछ ही दिन के हाथ मिलाने
सब के अपने नीड़ बने हैं
सबकी अपनी हैं पहचानें,
कौन हुआ है कब चिर जीवन?
थामा किसने कब है किसको?
अपनी तो परछाईं भी ना
है, जो होगी साथ निभाने,
नहीं रात्रि से भय है लेकिन
आँख मूँदने की बेला में
सोचूँ क्या मेरा प्रिय होगा ?
या अनजाना? संग सिरहाने
शीश नवा स्वीकार सकूँ मैं,
जाने की बजती जब भेरी
कैसी होगी शाम घनेरी
सोचती हूँ...