जाने तू कैसे लिखता है
चेहरे पर न भंगिमाएँ हैं
वाणी में न अदा है कोई
आँखें भी तो खुली खुली हैं
नहीं ख्वाब में खोई खोई
किसी ओर से किसी तरह भी
यार, न तू लेखक दिखता है
चाल ढाल भी मामूली है
रहन सहन भी है देहाती
नहीं घूमता महफिल महफिल
ताने नज़र फुलाए छाती
बिना नहीं तू फिर भी, तेरा
लिखा हुआ कैसे बिकता है
लोगों में ही गुम होकर
लोगों सा ही हँसता जाता है
कोई नहीं राह में कहता--
वह देखो लेखक जाता है
घर हो या बाज़ार किसी का
ध्यान नहीं तुझपर टिकता है
नहीं हाथ में ग्लास सुरा का
नहीं बहकती फेनिल भाषा
और न रह रह कर सिगार का
उठता हुआ धुआँ बल खाता
तेरा दिन चुपके चुपके
भट्ठी में रोटी सा सिंकता है।