कोई कहीं मुझे ग़लत समझ ले, सम्भव है,
सम्भव है मेरी ग़लतियाँ निकालते दिन पिघलकर
रात में तब्दील हो जाए।
बरसात में भीग, पानी हेल आकर
कह सकता है कोई कि रास्ते के गुलमोहर का तोरण
केवल उसके लिए बदल गया।
रात का रथ हाँकती चाँदनी
अपने हृदय की बाती जला
दिगन्त की ओर चली गई,
यही सोचकर बहुत दिन मारा-मारा ढूँढ़ता रहा उसे,
कई जगह कई लोेगों को पूछा, आँसू पोछे अपने।
आज नहीं तो कल, नहीं तो परसों
कहीं पता चलेगा, तब आकर बताऊँगा।
उसके बाद बहुत बार चम्पा फूली, राहें महकीं,
बहुत बार बहुत लोगों ने मदिरा पी, वही बात की,
बंसी के सुर के साथ-साथ
गाय-बकरियाँ वापस लौटीं
आँगन में आग का अलाव लगा,
फिर भी तो जैसे के तैसे रहे
आवाज़ और हाथ की उँगलियाँ।
बस भूल गया किसकी वजह से हुई यह ग़लतफ़हमी।
ओ मेरे एकाकीपन, ओ मेरे हाहाकार,
पृथ्वी से क्षमा माँग जाओ एक बार।
समीर ताँती की कविता : ’कोनोवाइ क'रवात’ का अनुवाद
शिव किशोर तिवारी द्वारा मूल असमिया से अनूदित