बंद दरवाज़ा
लौटा देता है वापस ,
राह अपनी
थकान, दुनी
हो जाती है जाने से
आने की
रास्ता
पहचानने लगा है
हर मोड़ कुछ
सीधा हो जाता है
सहानुभूति में
कभी भूल से साँकल
खटखटाने पर
झूम उठता है ताला
खिलखिलाकर बताता हुआ,
कोई नहीं है ।
१९९८ ई०