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कोख में / दिनेश कुमार शुक्ल

जाने कब से बन्द पड़ी किताब
अब खुद को खोल कर पढ़ना चाहती है,
पहाड़ तोड़ कर
करोड़ों वर्ष पुराना जल
फूटना चाहता है नयी नदी बनकर,
जन्म ले रही है बिल्कुल नयी प्रजाति
युगों पहले लुप्त प्रजाति के गर्भ से,
अजन्मा एक शब्द
उत्कंठित बैठा है कंठ में
बाहर आया
तो उठा ले जाएगी कोई न कोई भाषा उसे

अस्फुट आवाज़ों की झिल्ली में
अवगुंठित
कोई राग काँप रहा है
सद्यजात पक्षी शावक सा,
बिल्कुल नयी नयी आँखें
उन्मीलित होना चाहती हैं
ताकि वे देख सकें ऊष्मा
और तिरस्कार के रंग

उसे ज्ञात हैं सारे प्रमेय-अप्रमेय
सर्वज्ञता खोने के पहले
वह सोच लेना चाहता है
इतना इतना इतना अधिक
कि जितना सम्भव से भी थोड़ा अधिक हो
पुनर्जन्म के पहले
उसे कितना कुछ करना है
माता की कोख में ही उसको
अपनी पृथ्वी भी रचनी है!