कोटा-डायरी / विमलेश शर्मा

एक यात्रा अनवरत
थकन और बेतरतीब नींद के बाद
आस के साथ फिर जागती हूँ
और धूप-कनियों के स्नान से
जी उठती हूँ एक और दिन यों फ़िर !
नए शहर में क़दम उठाते हुए
कुछ भय रहना चाहिए
यह माँ की दी हुई नसीहतों में से एक बात है
जिसे सिखाया गया था
समझ के साथ ही
और दोहराया जाता है अब तक
दस , बीस और तीस के पड़ाव के बाद भी
बहुत कुछ घट रहा है लगभग रोज
घटेगा क्योंकि जितना सम उतना विषम भी
यह प्रकृति का नियम है !
बाबा ने कहा था कि
प्रयास उस सम में योग का हो
विषम यूँही कम होगा , हमारे आस-पास से
यह याद करते हुए
बचपन की यादगली में लौट जाती हूँ ।
बाबा चले गए हैं
मैं यहीं हूँ उसी यादगली में
कंपनी बाग़ के बाहर चाय वाला है
कई लड़के और अधेड़ खड़े हैं
बैंच पर चाय की चुस्कियों के साथ
मैं भी हूँ
मेरी बैंच अकेली है
उसे सकुचाते देख मैं उठकर गुलमोहर में डूबती हूँ
सोच का एक फूल फिर कौंधता है
जानती हूँ माँ यही कहती कि
यूँ अकेले चाय नहीं पीनी चाहिए
यूँ अकेले बाहर नहीं जाना चाहिए
भले ही मैं 35 सालां क्यों न हूँ!
उनकी ज़बान पर एक ख़बर है
अख़बारों में फ़िर एक दुष्कर्म का ज़िक्र है
शायद फ़िर किसी देवालय और मदरसे का हवाला है
मेरी आँखें उन आँखों को देखती हैं
और मैं पढ़ती हूँ कि सभी नौजवान आँखें शर्मसार हो चुप हैं!

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