एक कोयल गा रही है
कोई मधुर सुरीला गीत
मेरे घर के साथ खड़े
हरे भरे एक पेड़ पर
जिसकी शाखें
मेरे घर की बालकनी में
घुसी चली आती हैं
कोई दस्तक दिये बिना
जैसै बिन पूछे ही रमी जा रही
मेरे भीतर कोयल की आवाज़
किसी आश्चर्य से कम नहीं
मेरे घर के साथ खड़े
हरे भरे एक पेड़ पर
किसी कोयल का गाना
और लगातार गाते चले जाना
कहाँ गए सब जंगल?
कहाँ गए सब बाग-बगीचे?
कहाँ गए सब खूबसूरत फूल?
जो ये कोयल गा रही है
दिल्ली जैसे महानगर में रहने वाले
मेरे जैसे एक कवि के घर में
2004