देख री कोइलिया, यह बाग इसे हेमन्त कँपाता है,
क्रूर पतझर तो लाज उतार, दिगम्बर वेश बनाता है।
मँहकते फूलों का त्यौहार, अधिक दिन ठहर न पाता है,
आग के नाग नचाता हुआ, क्रुद्ध भस्मासुर आता है।
यहाँ की हर क्यारी है कैद, दिशाओं की प्राचीरों से,
गुलाबी अधरों की मुसकान, घिरी नोकीले तीरो से।
चाह की अनुरागिन बंशियाँ, बजातीं राम के सरगम हैं,
क्योंकि मधुपों की प्यासें बहुत और मधु की बूँदें कम हैं।
अरी नन्दन-बन की गायिके! यहाँ तुझको जिसने भेजा,
उसी के सुधा-सने संदेश, सिसकती मिट्टी को दे जा।
यहाँ के अस्थिर दृश्यों से न, जोड़ नाता स्वर का, लय का,
जिसे तू समझी अपना सदन, मंच वह तेरे अभिनय का।
मंच से पात्रों का सम्बन्ध, गमन के समय नहीं जुड़ता।
वृक्ष तो दूर, विहँग के साथ, डाल का नीड़ नहीं उड़ता॥