हम सब ने जो विकास के
नाम पर कमाया था
आज सब धुंआ हो रहा है
कितना विचित्र वक़्त है
सड़को पर जीवन की
तलाश में भटकते हुए लोग
घर में बंद इंसानो की ये
दशा और दिशा
जीवन को बचाने की कोशिश
मे प्रयास करती हुई सरकारें
हम समाज और तन्त्र
सब इस दर्द और डर में
शामिल है
जो इस त्रासदी के शिकार हुए
क्या पूछूँ उनसे
मेरी एक इच्छा होती है
उनसे पूछने कि क्या
वो विकास, पैसा, नफ़रत , अहम
से प्यार करने वाली दुनिया चाहते है
क्या वह मानव के विकास से
ये क़ीमत अदा करने को बोलेंगे
बेशक वह न बोलेंगे
पर विडंबना ये है
जो बच जाएँगे वह हाँ ही बोलेंगे !