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कोल्हू के बैल हुये हम / शीलेन्द्र कुमार सिंह चौहान

रोज़ चले किन्तु नहीं
सफ़र हुआ कम
अनचाहे कोल्हू के
बैल हुए हम

भोर हुई, दौड़ चले
दफ़्तर की ओर
साँझ हुई ,लौट पड़े
बँधे हुए डोर,
थके-थके पाँव लगे
आँख हुई नम

लगी रही रातों दिन
एक यही आस
कब कैसे हो जाएँ
साहब के खास
रोज़-रोज़ डाँट मिली
रोज़ मिला गम

बीबी के, बच्चों के
निबटाए काम
किन्तु नहीं याद रहा
मैया का नाम
पैसा ही सब कुछ है
बना रहा भ्रम

रोज़ चले किन्तु नहीं
सफ़र हुआ कम