कोशिशें हुईं जातीं रेत, हवा-पानी की।
यादों के चिकने स्पर्श
चुभे काँटों से,
लू के झांेके पड़ते-
गालों पर चाँटों से;
मिट्टियाँ पलीत हुईं इस भरी जवानी की।
कंधों पर अपना शव,
पिता का, पितामह का,
कापालिक औधड़ युग
चिताएँ रहा दहका;
परी-कथाएँ फूँके, दादी औ नानी की।
चक्रव्यूह से पहले
गर्भ में फँसे हैं दिन,
जन्मों से अंधे जो-
साँप के डँसे हैं दिन;
पीर झेलती रातें सर्द बियाबानी की।