इक औरत
जो दिखती है
या बनती है
वह कभी बनना
नहीं चाहती
भूमिकाओं में बंधना
नहीं चाहती
उसके ज़मीर को
जज़ीरों में बाँधकर
पुरजोर कोशिश की जाती है
कि वह बने औरत
बस खालिस औरत
भूमिकाओं में बंधा
उसका मन
रोता है
चक्की के पाटों में पिसा
लड़ती है वह अपने से हज़ार बार
रोती है ढोंग पर
धिक्कारती है वह
अपने औरतपन को---
मेरी मानो,
उसे एक बार छोड़ के देखो
उतारने दो उसे
अपने भेंड़ के चोले को
फिर देखो
कि वह बहती नदी है
एक बार वह गयी तो
फिर हाथ नहीं आयेगी
हाथों से फिसल जायेगी।