प्रेम! जितना तुममें
डूबती गयी
तुम्हारी गहराई की
थाह पाना कठिन होता गया,
मौन भाष्य में अनुभूत हुआ
तुम्हारे समक्ष अभिव्यक्त हुआ
सरलीकृत होते-होते
होता गया क्लिष्ट,
समर्पण की झील में
एक ठहराव के साथ तरंगायित होता
अस्पष्ट झंझावातों से बिखरा-सा प्रतीत होता प्रेम
पर कहीं सुना है ' प्रेम खोया या पाया नहीं जाता
प्रेम तो जिया जाता है '
ये कोशिश जारी है