चुटकियों में
समस्याओं से निजात दिलाने वाले कक्का
नही मिलते ढूँढने से इनदिनों
कोसी इलाके में
ये कक्का
साहित्य में द्विवेदी युग और फिर
छायावादी काल-खंड में
अपनी चतुराई का सिक्का
खूब जमाया करते थे
ये कक्का माहिर होते थे
रोते हुए बच्चे को हसाने में
अपने ढेर सारे इल्म व हुनर से
ये कक्का कुँवारे होते अक्सर
या फिर विधुर
दरवाजे की बैठकी पर या सर्द रातों में
अलाव के पास गप्पें मारते हुए
फगुनाहट का प्रथम अहसास भी
इन्हीं कक्काओं के बदौलत था
लालो कक्का, सोनू कक्का व भूपेन कक्का
सदृश्य व्यक्तित्व भी तो
नहीं दिखते इनदिनों
कोसी इलाके में !