कौन किससे दूर है, कौन किसके पास है,
रामायण नीचे है, ऊपर उपन्यास है।
डूबता है धर्म नष्ट कर्म आज हो रहा,
होगा क्या भविष्य, वर्तमान जब सो रहा,
फट रही है धरती और टूटता आकाश है।
ना तो यहाँ राम पुरुष, ना तो नारी सीता है,
ना तो यहाँ कर्म योग, ना तो ज्ञान गीता है,
घर-घर में जाने कैसी बुद्धि का विकास है।
आज मित्र मतलब के स्वार्थ लिप्त स्नेही हैं,
जो शोषक हैं जनता के वे समाज सेवी हैं,
शंका की लंका में होता सर्वनाश है।
मंदिर उपेक्षित-सा देखता रहस्य को,
गुज़र रहे सामने से क्लब के सदस्य को,
कौन ऐसी सभ्यता का यह प्रथम प्रयास है।
आओ तुलसीदास तेरा देश कुछ भटक गया,
ग्राह्य नहीं नीति मन-कंठ कुछ अटक गया,
चाहिए अज्ञानता में ज्ञान का विकास है।